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भारी बारिश के बीच विश्वप्रसिद्ध गोटमार मेला

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गोटमार के पत्थरो ने ली वर्ष 1955 से लेकर 2022 तक 14 लोगो की जान…

पांढुर्णा में शुरू हुआ खूनी खेल गोटमार एक ऐसा मेला जहां हर कोई जाता है पत्थर मारने..

सतपुड़ा एक्सप्रेस पांढुर्ना:पांढुर्णा में जाम नदी के तट पर बरसते पत्थर, सर फोडती गोफन, टपकती लाशे, लंगडे लुले होते लोग। परम्परा के नाम पर पांढुर्णा में गोटमार मेले ने न जाने अब तक कितने घर परिवार उजाड दिये, कितने माताये बेवा हुई। हर कोई कहता है बंद करों यह खुनी तमशा, लेकिन पोले के दूसरे दिन रोके नही रूकती यह विद्रुप परंपरा। पिछले ऐन वक्त पर विधायक महोदय ने बदला था अपना रंग। कानुन को छोड हो गये थे उन्मादियों के संग। इस साल क्या होंगा.? पुलिस फोर्स रहेंगी डटकर..? या दो चार पत्थर खाकर निकल जायेंगे दुबककर.? आखिर क्यों आभाध रूप से चला आ रहा है यह खुनी मेला

देखिये गोटमार मेले पर विशेष रिपोर्ट….

पांढुर्णा में गोटमार के पत्थरो ने ली वर्ष 1955 से लेकर 2022 तक 14 लोगो की जान…
मृतक के परिजनो की रौंगटे खड़े कर देती हैं गोटमार की यादें…
गोटमार का नाम सुनते ही थम जाती हैं मृतक के परिजनो की सांसें…झलक पड़ते है ” आँसू “

विश्वभर में प्रसिद्ध गोटमार मेला आज 15 सितंबर को पांढुर्णा में लगेगा। यहां से बहने वाली जाम नदी पर पांढुर्णा और सावरगांव के संगम पर सदियों से चली आ रही गोटमार खेलने की परंपरा को निभाते हुए लोग एक-दूसरे पर पत्थर बरसाएंगे। पोला पर्व के दूसरे दिन लगने वाले गोटमार मेले पर भले ही लोग लहुलूहान होंगे और शरीर से खून की धाराएं बहेगी, पर दर्द को भूलकर भी पूरे जोश व उमंग के साथ परंपरा निभाई जाएगी। गोटमार मेले पर मेले की आराध्य मां चंडिका के मंदिर में हजारों भक्त जुटेंगे और पूजन के साथ मां के चरणों में माथा टेकेंगे। मां चंडिका के दर्शन के बाद ही गोटमार खेलने वाले खिलाड़ी मेले में हिस्सा लेंगे।

विश्व प्रसिद्ध गोटमार मेले की परंपरा निभाने के पीछे किवदंतियां और कहानियां जुड़ी हैं। जिसके अनुसार जाम नदी के बीचो-बीच झंडेरूपी पलाश के पेड़ को गाड़कर मेले की परंपरा निभाई जाती है और पत्थरबाजी का खेल खेला जाता है।

एक प्रचलित किवदंती के अनुसार पांढुर्णा के युवक और सावरगांव की युवती के बीच प्रेमसंबंध थे। प्रेमी युवक ने सावरगांव पहुंचकर युवती को भगाकर पांढुर्णा लाना चाहा, पर दोनों के जाम नदी के बीच पहुंचते ही सावरगांव में खबर फैल गई। प्रेमीयुगल को रोकने सावरगांव के लोगों ने पत्थर बरसाए, वहीं जवाब में पांढुर्णा के लोगों ने भी पत्थर बरसाए। इस पत्थरबाजी में प्रेमीयुगल की तो मौत हो गई, पर तब से गोटमार मेले की परंपरा शुरू होने की बात किवदंती के अनुसार कही जाती है।

कहानी प्रचलित है कि जाम नदी के किनारे पांढुर्णा – सावरगांव वाले क्षेत्र में भोंसला राजा की सैन्य टुकड़ियां रहा करती थीं। रोजाना युद्धभ्यास के लिए टुकड़ियां के सैनिक नदी के बीचो-बीच झंडा लगाकर पत्थरबाजी और निशानेबाजी का मुकाबला करते थे। सैनिकों को निशानेबाजी और पत्थरबाजी में दक्ष करने यह सैन्य युद्धभ्यास लंबे समय तक जारी रहा। जिसने धीरे-धीरे परंपरा का रूप ले लिया। इस कहानी को भी गोटमार मेला आयोजन से जोड़ा जाता है और हर साल परंपरा निभाई जाती है।

भले ही गोटमार मेला सदियों से चली आ रही परंपरा अनुसार मनाया जा रहा है, पर मेले में अपनों को खोने वाले परिवारों का गम भी उभर जाता है। मेले के आते ही क्षेत्र के कई परिवारों के सालों पुराने दर्द उभर आते है। क्योंकि इन परिवारों ने गोटमार में ही अपनो को खोया है। गोटमार के दौरान अब तक किसी का पति, तो किसी का बेटा, किसी का पिता और भाई अपनी जान गवां चुके हैं। वहीं कई खिलाड़ियों को शरीर पर मिले जख्म गोटमार के दिन हरे हो जाते हैं।

» प्रशासन के प्रयास अब तक असफल :-
गोटमार की परंपरा सदियों से चली आ रही है। एक-दूसरे पर पत्थर बरसाकर लहुलूहान करने की इस परम्परा को रोकने प्रशासन ने तमाम प्रयास किए, पर प्रयास असफल रहे हैं। एक साल पत्थरों की बरसात रोकने रबर बॉल से खेल का प्रयास हुआ, पर चंद मिनटों में ही रबर बॉल सिफर हो गए और खिलाड़ियों ने पत्थरों से ही खेल शुरू कर दिया। बीते पांच-छह सालों से हर बार गोटमार रोकने भरसक प्रयास हो रहे हैं।मानवाधिकार आयोग ने भी इस पर आपत्ति जताई, जिसके बाद मेले में पत्थरबाजी को रोकने प्रशासन सख्ती से मुस्तैद रहा, पर गोटमार निभाने की परंपरा नही रूक पाई।

गोटमार मेले को सदियों से चली आ रही परंपरा की भांति मनाया जा रहा है, पर परंपरा पर विसंगतियां हावी होने से क्षेत्र के वयोवृद्ध चिंतित हैं। बुजुर्गों का कहना है कि गोटमार मेले में काफी बदलाव आ गया है। पहले की गोटमार और आज की गोटमार में जमीन-आसमान का अंतर है। पहले एक हद में रहकर परंपरा के भांति मेला आयोजित होता था, पर अब अवैध शराब और गोफन से मेले का स्वरूप बदल गया है। गोटमार में खिलाड़ियों को परंपरा निभाने की जिम्मेदारी समझनी चाहिए, ताकि पारंपरिक मेले का स्वरूप बरकरार रहे।

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